वैदिक सिद्धान्त परिचय
दो प्रकार की विद्या है, एक भौतिक विद्या और दूसरी आध्यात्मिक विद्या। जो हमारे जीवन के बाहर के साधनों से जुड़ी हुई है उसे भौतिक विद्या कहते हैं और जो हमारे भीतर के मन, बुद्धि और आत्मा आदि से जुड़ी हुई है उसे अध्यात्मा विद्या कहते हैं। इन दोनों विद्याओं का अपना-अपना महत्व है। इन दोनों विद्याओं के बिना हम पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकते। क्योंकि एक विद्या हमारे बाहर के जीवन को उन्नत करती है और दूसरी विद्या हमारे भीतर के जीवन को उन्नत करती है, इन दोनों में से कोई एक विद्या से हमारा कार्य नहीं चल सकता ।
पुनरपि यदि भौतिक विद्या थोड़ी बहुत कम हो तो भी काम चल सकता है पर अध्यात्म विद्या हमारे सुखी जीवन के लिए अनिवार्य है । जैसे किसी व्यक्ति के पास बड़ा बंगला, बड़ी गाड़ी, नौकर-चाकर, भोजन में बढ़िया पकवान आदि सब कुछ है, पर उसी व्यक्ति का शरीर यदि रोगी हौ, निर्बल हो, अंग-भंग हो तो वह बाहर से चाहे कितना भी साधन-सुविधा संपन्न हो तो भी उसका पूरा सुख नहीं ले सकता। इसका उल्टा बाहर चाहे साधन सुविधा भले ही कम हो, पर यदि वह व्यक्ति स्वस्थ, आरोग्यवान्, बलवान् यदि है तो, वह अपने जीवन में सुखी रह सकता है।
वर्तमान के समय में हम इस आध्यात्मिक विद्या का हमारे जीवन में क्या महत्व है, इसका क्या मूल्य है, इसे नहीं समझ पा रहे या समझना नहीं चाहते और जो समझ रहे हैं उसमें भी कई लोग सही को गलत और गलत को सही समझ रहे हैं। ऐसी स्थिति में आध्यात्मिक सिद्धांतों का यथार्थ में कोई अस्तित्व है या नहीं? और यदि है तो वह सत्य आध्यात्मिक सिद्धांत कौन-कौन से है? उस विषयक सत्य-असत्य का ज्ञान हमारे लिए अनिवार्य है।अन्यथा हम इस अध्यात्म के नाम पर भटक सकते हैं और भटकने वाले भटक भी रहे हैं।
इसलिए इस संसार का जो प्राचीनतम अध्यात्मिक ग्रंथ वेद है, उस वेद में अध्यात्म विषयक बातों के बारे में क्या सत्यता-असत्यता बताई है, उसे हम जानकर सही अध्यात्म विद्या का निर्णय करके अपने जीवन को उन्नत कर सकते हैं।
- सही और गलत का निर्णय करने का पैमाना।
- वेद ही सत्य आध्यात्मिक विद्या क्यों?
- धर्म किसे कहते हैं?
- मनुष्य जीवन का लक्ष्य-प्रयोजन-उद्देश्य क्या है?
- क्या हम आत्मा है या शरीर?
- क्या ईश्वर है? यदि हां तो कैसा है? कहां है? कितने है? क्या करता है? और क्या नहीं करता?
- हमें जो भी सुख और दु:ख मिल रहे हैं,क्या यह हमारे पाप पुण्य रूपी कर्मों का फल है?
- क्या आत्मा ही परमात्मा है या आत्मा परमात्मा से अलग है?
- यह सृष्टि अपने आप अकस्मात बनी है या इसे कोई बनाने वाला है? और यदि है, तो संसार में सुनामी, भूकंप, बाढ़ आदि क्यों आते हैं?
- क्या ईश्वर को ना मानने से और धर्म का आचरण ना करने से हमारी कोई हानि हो सकती है? इसका उल्टा यदि हम ईश्वर को माने और धर्म का आचरण करें तो क्या हमें कोई लाभ हो सकता है? तो कैसे?
- मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, ज्ञानेंद्रियां, कर्मेंद्रियां, तनमात्रा और पंचमहाभूत किसे कहते हैं? और इनका क्या प्रयोजन है?
- ईश्वर की पूजा, भक्ति, अर्चना किस प्रकार हो सकती है?
- क्या मनुष्य सृष्टि के प्रारंभ से ही इसी रूप में है? या डार्विन के सिद्धांत अनुसार इसका क्रमिक विकास हुआ है?