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श्री अजय आर्य का जन्म भावनगर गुजरात में एक ऐसे संयुक्त परिवार में हुआ जहां आपको बहुआयामी शिक्षा और वैदिक संस्कार प्राप्त हुए।
आधुनिक शिक्षा में BA एवं Diploma in Computer Engineering का अध्ययन किया और साथ-साथ खेती और घर के फर्नीचर के व्यवसाय में भी हाथ बँटाते रहे। इसके उपरांत आपने समय का सदुपयोग करते हुए हिमालय जैसे क्षेत्रों में ट्रेकिंग, शिप डिजाइनिंग और कई सामाजिक सेवाओं में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। फल स्वरुप आपको बेस्ट स्टूडेंट ऑफ ध ईयर, बेस्ट कैडेट ऑफ गुजरात, चीफ मिनिस्टर स्कॉलरशिप एवं सीनियर कैडटे कैप्टन की रैंक से सम्मानित किया गया।
कैरियर के रूप में आपने एक कंप्यूटर इंजीनियर की जॉब से शुरुआत की, जिसके अनुभव से आपने स्वयं का कंप्यूटर हार्डवेयर एंड नेटवर्किंग का व्यवसाय प्रारंभ किया और जिसके साथ-साथ अवसर रहते आपने पारिवारिक फर्नीचर के व्यवसाय मैं वर्कशॉप हैंडलिंग, सेल्स आदि कार्य को करते हुए उस व्यवसाय को प्रतिदिन लाख रुपए के टर्नओवर तक बढ़ाया।
पर इतना सब कुछ करते हुए भी आपको एक मौलिक सफलता की अनुभूति नहीं हो रही थी। आपने बहुत सारी मोटिवेशन की पुस्तकें पढ़ी तो थी और कई सारे मोटिवेशनल ट्रेनरो को भी सुना तो था फिर भी सफलता की संतोषजनक परिभाषा नहीं मिल पाई। संयोग से उस समय आपको ‘महर्षि पतंजलि रचित योग दर्शन’ का पुस्तक प्राप्त हुआ। जिसे देखने-समझने पर आपको विश्वास हो गया कि, यथार्थ सफलता क्या है वह इसी में से सीखने को मिल सकता है। इस कारण आपने 30 वर्ष की आयु में भी गुरुकुल में प्रवेश लेकर 5 वर्ष तक "वैदिक दर्शनों" का अध्ययन करके "वैदिक दर्शनाचार्य" की उपाधि प्राप्त की। इस प्रकार आप जो चाहते थे उसे प्राप्त करने में सफल रहे।
अब आप यह ज्ञान अनेक लोगों को तक पहुंचाने की भावना से पिछले 10 वर्षों से देश भर में हजारों लोगों को योग शिविर, ध्यान शिविर, यज्ञ प्रशिक्षण शिविर, गीता उदय कथा, शंका समाधान, मोटिवेशन, डिबेट, कोचिंग व लेखन आदि जैसे कई कार्य से लाभ दे रहे हैं। इस प्रकार इस ज्ञान को विशेष रूप से और व्यापक स्तर पर ले जाने के लिए आपने "सत्य असत्य" का सर्जन किया है।
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अर्थ शब्द की व्याख्या
"अर्थ शब्द का तात्पर्य है वह वस्तु जिससे हमारा जीवन चलता है, सुरक्षित रहता है या रक्षा होती है।" सामान्य रूप से हम धन को ही अर्थ मानते हैं। धन से हमारे जीवन की रक्षा होने से वह भी अर्थ है, परंतु केवल धन ही अर्थ नहीं है। अर्थ शब्द बहुत व्यापक है, इसमें वे सभी वस्तुएं आजाती है जिससे हमारा जीवन चलता है। धन केवल उसमें से एक साधन है। अतः यहां जो अर्थ शब्द बताया है वह उस व्यापक अर्थ में ही है, जिसमें वे सभी वस्तुएं आजाती है, जो जीवन की सुख सुविधाओं के लिए आवश्यक हैं। यह धन रुपी अर्थ ही हम सभी को पुरुषार्थ के लिए प्रेरित करता है। अर्थ सभी को बड़ा प्रिय है, यहां तक कि लोगों को अपने प्राण, शरीर, जीवन या कोई भी विषय, वस्तु, व्यक्ति क्यों ना हो इन सभी में यह धनरूपि अर्थ बड़ा प्रिय लगता है। क्योंकि इस अर्थ से अपने सभी व्यवहारिक प्रयोजन पूरे किए जाते हैं।
अर्थ (धन) के आधार पर पांच अवस्थाएं
कोई भी मनुष्य चाहे किसी भी देश या जाति का हो, उसकी अर्थ (धन) के आधार पर यहां बताई जा रही 5 अवस्थाओं में से कोई ना कोई एक अवस्था तो जरूर होगी।
1) संपूर्ण निर्धन अवस्था : वह अवस्था जहां व्यक्ति अर्थ के अभाव में नरक का जीवन जीने के लिए बाध्य है, जहां दो समय का भोजन भी मिल पाना अत्यंत दुर्लभ है और सभी प्रकार की यातनाओं से ग्रस्त है।
- जो सीधे गरीबी की रेखा के नीचे आते हैं।
2) संघर्ष युक्त अवस्था : वह अवस्था जहां व्यक्ति ऐडी से लेकर चोटी तक का जोर लगाले, चाहे यहां वहां सब जगह हाथ पैर मार ले, तब जाकर कुछ अपना और अपने परिवार का भरण पोषण कर पाता है।
- जिसे हम रोज का रोज कमाकर आजीविका करने वाला श्रमिक वर्ग कह सकते हैं।
3) सामान्य अवस्था : जहां व्यक्ति सामान्य रूप से थोड़ी सहजता से सामान्य स्तर का जीवन जी लेता है।
- जिसमें आवश्यक साधन सुविधाएं बहुत कुछ जुटा ली जाती है।
4) मध्यम अवस्था : जहां व्यक्ति आज के समय में भौतिक साधन संपन्न, आवश्यक सुविधाओं से युक्त होता है। जैसे सुरक्षा, चिकित्सा, सहयोगी आदि और संसार में प्रतिष्ठा को भी प्राप्त हो सकता है।
- जिसे हम सेलिब्रिटी या बुद्धिजीवी या लीडर आदि कह सकते हैं।
5) ऐश्वर्य संपन्न अभ्युदय वाली पूर्ण अवस्था : यह संसार की आदर्श अवस्था है। यही अवस्था इस संसार की सबसे बड़ी, उत्तम, चरम अवस्था है। इस से बढ़कर इस संसार की और कोई अवस्था नहीं है, जिसमें दो प्रकार के जीवन होते हैं। एक सुखी जीवन (भौतिक साधन संपन्न) और दूसरा हितकारी जीवन (उच्च आदर्श मूल्य वाला श्रेष्ठ जीवन)। इन दोनों जीवन के बारे में हम अलग से एक ब्लॉग में बताएंगे।
- इन्हें हम अभ्युदय से युक्त सफल जीवन वाला कह सकते हैं।
चार प्रकार के (आर्थिक) जीवन
संसार में जो भी मनुष्य है उन सभी का यहां बताए गए चार जीवन में से कोई ना कोई एक जीवन तो जरूर होता है। इन चार जीवन में से दो जीवन, एक सुखी जीवन और दूसरा हितकारी जीवन बनाने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। और इनमें से दो जीवन, दु:खी जीवन और अहितकारी जीवन छोड़ने योग्य है उन्हें छोड़ देना चाहिए।
1) सुखी जीवन :
- शारीरिक और मानसिक आरोग्यता वाला होता है।
- सभी इंद्रियां स्वस्थ और बलवान होती है।
- प्रत्येक कार्य को करने में समर्थ होता है।
- पुरुषार्थ एवं पराक्रम से युक्त होता है।
- कई प्रकार के ज्ञान-विज्ञान में कुशल होता है।
- उत्तम संपत्ति अर्थात भौतिक साधन सुविधाओं से युक्त एवं सुशोभित होता है।
- विविध प्रकार के ऐश्वर्य से संपन्न होता है।
- जिसके सभी कार्य यथा संकल्प पूर्ण हो जाते हैं।
- निर्बाध रूप से कहीं भी आने-जाने में समर्थ होता है।
- अर्थात जिसके पास वर्तमान में उपलब्ध सभी प्रकार की भौतिक सुख सुविधाएं, उन भोगों को भोगने का सामर्थ्य , सभी प्रकार की अनुकूलताऐं एवं ऐश्वर्य से संपन्न होता है वह।
2) दु:खी जीवन :
- शारीरिक और मानसिक रूप से दुर्बल और रोगी होना।
- इंद्रियों का निस्तेज एवं रोगी होना।
- कार्यों को करने में असमर्थ होना।
- पुरुषार्थ, पराक्रम, उत्साह आदि गुणों से रहित होना।
- ज्ञान-विज्ञान के विषय में मूर्ख होना।
- संपत्ति आदि से रहित कुशोभित होना।
- किसी भी प्रकार के साधन, सुविधाओं से रहित दरिद्र अवस्था में होना।
- किसी भी कार्य का पूर्ण होना बहुत कठिन होना।
- परिस्थितियों के आधीन, स्वयं की इच्छा से कुछ भी करने में असमर्थ अर्थात पराधीन होना।
- अर्थात किसी भी प्रकार की भौतिक सुख, सुविधाओं से रहित एवं उन सुखों को प्राप्त करने के सामर्थ्य से रहित अनेकों प्रतिकूलताओं से ग्रस्त आर्थिक विपन्नता वाला होना।
3) हितकारी जीवन :
- किसी भी परिस्थिति में धैर्यवान होना।
- सभी कार्यों को सोच समझकर के करना।
- हर परिस्थिति में शांति व्यवस्था बनाए रखना।
- सभी प्रकार के व्यवहारों में सदा सावधान रहना।
- सभी प्राणियों का शुभचिंतक एवं सबका भला चाहना।
- विकट परिस्थिति में भी दूसरों के धन की इच्छा ना रखना।
- सदा सम्मान के योग्य व्यक्तियों का सम्मान करना। अपनी इच्छा के अनुसार अपने मन के विकारों को वश में रखना।
- सदा कुछ ना कुछ दान देने की प्रवृत्ति से युक्त होना।
- कष्टों को सहन करके भी अपने कर्तव्य का पालन करना।
- सदा वृद्धों की प्रेमपूर्वक सेवा करना।
- स्मरण शक्ति का उत्तम होना।
- सद्बुद्धि से युक्त होना।
- अर्थात मन-वाणी-शरीर से श्रेष्ठ आचरण का ही करना।
4) अहितकारी जीवन :
- धैर्य से रहित होना।
- किसी भी कार्य को बिना सोचे समझे शीघ्रता से करना।
- अशांत रहना और अव्यवस्था आदि उत्पन्न करना।
- सदा लापरवाही करना।
- स्वार्थी , लालची, लोभी होकर केवल अपने हित का ही सोचना।
- सदा दूसरों के धन की इच्छा,कामना करना।
- सम्मान के योग्य व्यक्तियों का सम्मान ना करना और दूर्जनों में प्रिय होना।
- अपने मन के विकारों पर नियंत्रण ना होना।
- दान आदि सद् प्रवृत्ति से रहित होना।
- असहनशील होना।
- बड़ों के प्रति असभ्य होना।
- स्मरण शक्ति आदि बुद्धि के गुणों से रहित होना।
- अर्थात मन-वाणी-शरीर से निदंनीय, असभ्य आचरण को करने वाला होना।