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अर्थ शब्द की व्याख्या

"अर्थ शब्द का तात्पर्य है वह वस्तु जिससे हमारा जीवन चलता है, सुरक्षित रहता है या रक्षा होती है।" सामान्य रूप से हम धन को ही अर्थ मानते हैं। धन से हमारे जीवन की रक्षा होने से वह भी अर्थ है, परंतु केवल धन ही अर्थ नहीं है। अर्थ शब्द बहुत व्यापक है, इसमें वे सभी वस्तुएं आजाती है जिससे हमारा जीवन चलता है। धन केवल उसमें से एक साधन है। अतः यहां जो अर्थ शब्द बताया है वह उस व्यापक अर्थ में ही है, जिसमें वे सभी वस्तुएं आजाती है, जो जीवन की सुख सुविधाओं के लिए आवश्यक हैं। यह धन रुपी अर्थ ही हम सभी को पुरुषार्थ के लिए प्रेरित करता है। अर्थ सभी को बड़ा प्रिय है, यहां तक कि लोगों को अपने प्राण, शरीर, जीवन या कोई भी विषय, वस्तु, व्यक्ति क्यों ना हो इन सभी में यह धनरूपि अर्थ बड़ा प्रिय लगता है। क्योंकि इस अर्थ से अपने सभी व्यवहारिक प्रयोजन पूरे किए जाते हैं।

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अर्थ (धन) के आधार पर पांच अवस्थाएं

कोई भी मनुष्य चाहे किसी भी देश या जाति का हो, उसकी अर्थ (धन) के आधार पर यहां बताई जा रही 5 अवस्थाओं में से कोई ना कोई एक अवस्था तो जरूर होगी।

1) संपूर्ण निर्धन अवस्था : वह अवस्था जहां व्यक्ति अर्थ के अभाव में नरक का जीवन जीने के लिए बाध्य है, जहां दो समय का भोजन भी मिल पाना अत्यंत दुर्लभ है और सभी प्रकार की यातनाओं से ग्रस्त है।

- जो सीधे गरीबी की रेखा के नीचे आते हैं।

2) संघर्ष युक्त अवस्था : वह अवस्था जहां व्यक्ति ऐडी से लेकर चोटी तक का जोर लगाले, चाहे यहां वहां सब जगह हाथ पैर मार ले, तब जाकर कुछ अपना और अपने परिवार का भरण पोषण कर पाता है।

- जिसे हम रोज का रोज कमाकर आजीविका करने वाला श्रमिक वर्ग कह सकते हैं।

3) सामान्य अवस्था : जहां व्यक्ति सामान्य रूप से थोड़ी सहजता से सामान्य स्तर का जीवन जी लेता है।

- जिसमें आवश्यक साधन सुविधाएं बहुत कुछ जुटा ली जाती है।

4) मध्यम अवस्था : जहां व्यक्ति आज के समय में भौतिक साधन संपन्न, आवश्यक सुविधाओं से युक्त होता है। जैसे सुरक्षा, चिकित्सा, सहयोगी आदि और संसार में प्रतिष्ठा को भी प्राप्त हो सकता है।

- जिसे हम सेलिब्रिटी या बुद्धिजीवी या लीडर आदि कह सकते हैं।

5) ऐश्वर्य संपन्न अभ्युदय वाली पूर्ण अवस्था : यह संसार की आदर्श अवस्था है। यही अवस्था इस संसार की सबसे बड़ी, उत्तम, चरम अवस्था है। इस से बढ़कर इस संसार की और कोई अवस्था नहीं है, जिसमें दो प्रकार के जीवन होते हैं। एक सुखी जीवन (भौतिक साधन संपन्न) और दूसरा हितकारी जीवन (उच्च आदर्श मूल्य वाला श्रेष्ठ जीवन)। इन दोनों जीवन के बारे में हम अलग से एक ब्लॉग में बताएंगे।

- इन्हें हम अभ्युदय से युक्त सफल जीवन वाला कह सकते हैं।

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चार प्रकार के (आर्थिक) जीवन

संसार में जो भी मनुष्य है उन सभी का यहां बताए गए चार जीवन में से कोई ना कोई एक जीवन तो जरूर होता है। इन चार जीवन में से दो जीवन, एक सुखी जीवन और दूसरा हितकारी जीवन बनाने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। और इनमें से दो जीवन, दु:खी जीवन और अहितकारी जीवन छोड़ने योग्य है उन्हें छोड़ देना चाहिए।

1) सुखी जीवन :

  • शारीरिक और मानसिक आरोग्यता वाला होता है।
  • सभी इंद्रियां स्वस्थ और बलवान होती है।
  • प्रत्येक कार्य को करने में समर्थ होता है।
  • पुरुषार्थ एवं पराक्रम से युक्त होता है।
  • कई प्रकार के ज्ञान-विज्ञान में कुशल होता है।
  • उत्तम संपत्ति अर्थात भौतिक साधन सुविधाओं से युक्त एवं सुशोभित होता है।
  • विविध प्रकार के ऐश्वर्य से संपन्न होता है।
  • जिसके सभी कार्य यथा संकल्प पूर्ण हो जाते हैं।
  • निर्बाध रूप से कहीं भी आने-जाने में समर्थ होता है।
  • अर्थात जिसके पास वर्तमान में उपलब्ध सभी प्रकार की भौतिक सुख सुविधाएं, उन भोगों को भोगने का सामर्थ्य , सभी प्रकार की अनुकूलताऐं एवं ऐश्वर्य से संपन्न होता है वह।

2) दु:खी जीवन :

  • शारीरिक और मानसिक रूप से दुर्बल और रोगी होना।
  • इंद्रियों का निस्तेज एवं रोगी होना।
  • कार्यों को करने में असमर्थ होना।
  • पुरुषार्थ, पराक्रम, उत्साह आदि गुणों से रहित होना।
  • ज्ञान-विज्ञान के विषय में मूर्ख होना।
  • संपत्ति आदि से रहित कुशोभित होना।
  • किसी भी प्रकार के साधन, सुविधाओं से रहित दरिद्र अवस्था में होना।
  • किसी भी कार्य का पूर्ण होना बहुत कठिन होना।
  • परिस्थितियों के आधीन, स्वयं की इच्छा से कुछ भी करने में असमर्थ अर्थात पराधीन होना।
  • अर्थात किसी भी प्रकार की भौतिक सुख, सुविधाओं से रहित एवं उन सुखों को प्राप्त करने के सामर्थ्य से रहित अनेकों प्रतिकूलताओं से ग्रस्त आर्थिक विपन्नता वाला होना।

3) हितकारी जीवन :

  • किसी भी परिस्थिति में धैर्यवान होना।
  • सभी कार्यों को सोच समझकर के करना।
  • हर परिस्थिति में शांति व्यवस्था बनाए रखना।
  • सभी प्रकार के व्यवहारों में सदा सावधान रहना।
  • सभी प्राणियों का शुभचिंतक एवं सबका भला चाहना।
  • विकट परिस्थिति में भी दूसरों के धन की इच्छा ना रखना।
  • सदा सम्मान के योग्य व्यक्तियों का सम्मान करना। अपनी इच्छा के अनुसार अपने मन के विकारों को वश में रखना।
  • सदा कुछ ना कुछ दान देने की प्रवृत्ति से युक्त होना।
  • कष्टों को सहन करके भी अपने कर्तव्य का पालन करना।
  • सदा वृद्धों की प्रेमपूर्वक सेवा करना।
  • स्मरण शक्ति का उत्तम होना।
  • सद्बुद्धि से युक्त होना।
  • अर्थात मन-वाणी-शरीर से श्रेष्ठ आचरण का ही करना।

4) अहितकारी जीवन :

  • धैर्य से रहित होना।
  • किसी भी कार्य को बिना सोचे समझे शीघ्रता से करना।
  • अशांत रहना और अव्यवस्था आदि उत्पन्न करना।
  • सदा लापरवाही करना।
  • स्वार्थी , लालची, लोभी होकर केवल अपने हित का ही सोचना।
  • सदा दूसरों के धन की इच्छा,कामना करना।
  • सम्मान के योग्य व्यक्तियों का सम्मान ना करना और दूर्जनों में प्रिय होना।
  • अपने मन के विकारों पर नियंत्रण ना होना।
  • दान आदि सद् प्रवृत्ति से रहित होना।
  • असहनशील होना।
  • बड़ों के प्रति असभ्य होना।
  • स्मरण शक्ति आदि बुद्धि के गुणों से रहित होना।
  • अर्थात मन-वाणी-शरीर से निदंनीय, असभ्य आचरण को करने वाला होना।
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रोजगार संबंधित समस्या वालों का (आय के आधार पर) वर्गीकरण

रोजगार संबंधित समस्या का सामना विशेषकर यहां बताए जा रहे वर्गवाले लोगों को करना पड़ता है। उनकी आर्थिक आय के आधार पर उनके यहां 7 वर्गीकरण बताए गए हैं।

  1. वह वर्ग जिनके पास कोई काम नहीं है जो बेरोजगार है।
  2. वह वर्ग जो दिहाड़ी करके अपना काम चलाता है, जो मजदूर वर्ग है।
  3. वह वर्ग जो पढ़े-लिखे होने के बाद भी बेकार वर्ग में गिने जाते हैं। यहां वहां जो काम मिला ना मिला ऐसे ही अपना काम चला रहे हैं।
  4. वह वर्ग जो ऐसे व्यवसाय से जुड़ा हुआ है, जिसमें बहुत अधिक प्रति स्पर्धा , संघर्ष, असुरक्षा और असंतोष की स्थिति है।
  5. वह वर्ग जिनकी आय में कोई स्थिरता नहीं है। वह अन्य परिस्थितियों के अधीन हैं। जैसे किसान, स्टॉक मार्केट वाले, आर्थिक मंदी के चलते नौकरी आदि को खो देने वाले।
  6. वह वर्ग जिनके पास आय तो ठीक-ठाक है पर व्यय बहुत ज्यादा कर देते हैं।
  7. वह वर्ग जिसकी स्थिति तो अच्छी है,पर जहां हैं वहां स्थिरता कैसे बनाए रखें या आगे कैसे बढ़े इस संघर्ष में लगे हुए हैं।
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दो एषणाओं की प्रधानता

हम सभी नितांत दु:खों से छूटकर पूर्ण सुख को प्राप्त करना चाहते हैं। इसी के चलते हमारी अनेकों प्रकार की इच्छाएं होती है। जैसे पत्नी, पुत्र, धन प्रतिष्ठान आदि का प्राप्त करना। उन्हें हम पूरा करना चाहते हैं।पर इनमें से दो इच्छाएं प्रमुख है, पहली प्राणेषणा ऑर दूसरी धनेषणा।

1) प्राणेषणा :

  • प्राणों की एषणा अर्थात् प्राणों को चाहना, अर्थात् मेरे प्राण, मेरा जीवन सदा बना रहे। मुझे कभी किसी प्रकार की हानि, रोग आदि ना हो। यह शरीर ही इच्छाओं की पूर्ति का साधन है। अतः यह इच्छा प्रत्येक मनुष्य में चाहे वह किसी भी देश या विचारधारा का क्यों ना हो सभी में प्रबल रूप से विद्यमान रहती है।

2) धनेषणा :

  • धन की इच्छा। हम सभी जानते हैं, छोटे से लेकर बड़े तक समस्त सांसारिक साधनों को प्राप्त करने का मुख्य साधन धन है। अतः दूसरे नंबर पर यह इच्छा आती है। पूरा संसार सुबह से लेकर रात तक जो भागदौड़ कर रहा है इसका कारण यह धन की इच्छा ही है। यदि बिना धन का लंबा और स्वस्थ जीवन मिल जाए तोभी कष्टों से भरा हुआ होता है। अतः धन से ही जीवन उपयोगी साधनों को जुटाया जा सकता है, धन ही भोगों को प्राप्त करने का मुख्य साधन है। इसलिए यह इच्छा भी हम सभी में प्रबल रूप से विद्यमान रहती है।
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